अपने होने की आहुति लिए..

एक प्यासी नदी



मंजुल भरद्वाज 


एक प्यासी नदी


विरह की आग में


तपती हुई


तपिश के किनारों में


बंधी मन की लहरों में


खोज रही है


अपने समंदर को


खुद के होने को कभी


मन के समंदर में


कभी तपिश की आग में


ढूंढ़ रही है


अपनी आहुति लिए हुए!


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