किसान आंदोलन या राजनीतिक आंदोलन?

 

आज किसान आंदोलन एक राजनीतिक आंदोलन के तौर पर अब अपनी आगे की राह तलाश रहा?

प्रकाश शुक्ला

जहाँ देश एक ओर करोना के बाद आर्थिक स्थिति को सुधारने की कोशिशो मे लगा है वही दूसरी ओर आन्दोलन की आग उसे पीछे खींच रही है आज किसान आंदोलन एक राजनीतिक आंदोलन के तौर पर अब अपनी आगे की राह तलाश रहा है। 

यह आंदोलन विशुद्ध तौर पर राजनीतिक आंदोलन बन गया है। अब जितने दिन और चलेगा इसमें हिंसा बढ़ने की आशंका को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। राकेश टिकैत की भावुक अपील और उसके बाद के घटनाक्रम ने आंदोलन और उसके साथ-साथ चलने वाली विपक्ष की राजनीति को भी साफ कर दिया है। जो अब तक पर्दे के पीछे था, वह आगे आ चुका है। 

यह कोई छिपी बात नहीं है कि लाल किले पर जमा हुए उपद्रवियों में कांग्रेसी और आप के समर्थक भी शामिल थे। दीप सिद्धू के साथ जो दूसरा व्यक्ति था, उसकी तस्वीरें सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी और रॉबर्ट वाड्रा के साथ देखी जा सकती हैं। कांग्रेस, सपा, बसपा, रालोद और वामपंथियों के साथ ही तमाम विपक्षी पार्टियां इस आंदोलन के जरिए अपना-अपना हित साधना चाहती हैं। ये ही वजह है कि रालोद के जयंत चौधरी गाजीपुर बॉर्डर पहुंचे, जो अभी तक बड़ौत में तो किसानों के बीच जा रहे थे, लेकिन गाजीपुर में कदम नहीं रख रहे थे। 

भाकियू और रालोद की नजदीकी से 2022 के यूपी चुनाव में रालोद को ही फायदा होगा। वहीं, आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया भी कहां पीछे रहने वाले थे, उनकी पार्टी पहले ही यूपी में चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है। ऐसे में किसानों का हमदर्द इस वक्त सभी को दिखना है और बनना है। ये ही वजह है कि केजरीवाल से लेकर मनीष सिसौदिया तक इस मौके को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहते। 

जो अब तक पर्दे के पीछे था, वह आगे आ चुका...

यह किसान आंदोलन आप के लिए यूपी में राजनीतिक जमी तैयार करने में मददगार साबित होगा।रही बात कांग्रेस की तो उनके नेता दीपेंद्र हुड्डा भी गाजीपुर में किसानों के मंच से भाषण दे आए हैं। दरअसल, यह किसान आंदोलन राजनीतिक होने के यसाथ ही अब जाट अस्मिता का प्रश्न भी बन गया है।  2013 के मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से जाट समुदाय बीजेपी का कोर वोटबैंक बन गया था, जिसका खामियाजा रालोद का उठाना पड़ा था और अजीत चौधरी को लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था। अब इस आंदोलन के जरिए रालोद हाशिये पर पहुंची अपनी सियासत को चमकाना चाहती है, जो तभी संभव है जब किसानों के बीच फिर से अजीत सिंह के प्रति वैसे ही हमदर्दी पैदा हो.. जिसका सहारा उनका कल का दांव  बना है। 

कांग्रेस के पूर्व सांसद और जाट नेता हरेंद्र मलिक और पूर्व विधायक पंकज मलिक भी टिकैत के समर्थन में आ गए हैं। यह गठजोड़ राजनीतिक तौर पर भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है। पश्चिम यूपी में किसान और जाट समुदाय राजनीतिक दशा-दिशा तय करते हैं। ऐसे में अगर बीजेपी से जाट छिटकते हैं, तो 2022 में राजनीतिक नुकसान होना तय है। यूपी में 4 फीसदी और सबसे ज्यादा पश्चिमी यूपी में 17 से ज्यादा फीसदी जाट हैं। 

इस आंदोलन में भी सबसे ज्यादा सक्रिय पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उन जाट हैं, जहां की किसान राजनीतिक राकेश टिकैत और नरेश टिकैत को पिता महेंद्र टिकैत से विरासत में मिली है। रही बात कांग्रेस की तो इस आंदोलन के जरिए वह पूरे देशभर में किसानों की हमदर्दी बंटोरना चाहती है। वाम दलों के बस की कुछ नहीं है, वो कांग्रेस के ही पिछल्लू बनकर रहना चाहते हैं, और रहेंगे भी। पश्चिम बंगाल उसका उदाहरण है। जहां इस साल होने वाले चुनाव में दोनों मिलकर लड़ रहे हैं। राहुल गांधी ने ख्वाहिश जता दी है कि किसान आंदोलन को अन्य राज्यों में भी फैलना चाहिए। ताकि कांग्रेस की बंजर जमीन पर कुछ पैदावार उग सकें। ये ही वजह है कि उन्होंने कहा है कि किसानों को एक इंच भी पीछे नहीं हटना चाहिए। जबकि, अभी तक लाल किले हिंसा पर राहुल ने चुप्पी ही साधी हुई है। उन्होंने एक बार भी उस अराजकता की निंदा नहीं की। क्या वजह है? 

मैं तो योगेंद्र यादव के बारे में सोच रहा हूं, वह अचानक से फ्रेम से बाहर हो गये आखिर क्यों? अब तो ऐसा लगता है कि राकेश टिकैत इस आंदोलन को जारी रखने के लिए हर हद तक उतावले हैं।  स्वाभिमान के साथ ही इसके पीछे की राजनीति भी है। ये ही वजह है कि अन्य किसान नेता आंदोलन को गलत दिशा में ले जाने का आरोप लगाते हुए पीछे हट गए और टिकैत से दूरी बना ली। क्योंकि, शुरुआत से ही आंदोलन का फ्रंट चेहरा टिकैत ही बने रहना चाहते थे। जो हुआ भी है। यह आंदोलन किसान आंदोलन न रहकर राकेश टिकैत और भाजपा के बीच की जिद का आंदोलन बन गया है। शुरुआत से ही आंदोलन में शामिल होने वाले किसानों को कृषि कानूनों को काला कानून बताकर तरह-तरह से बरगलाया गया है। 

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