किससे कहू मन की व्यथा

डॉ  बीना सिंह

मन की व्यथा किससे कहू

जीवन की अपनी कथा किससे कहूं

सूरज निकलता रहा हर रोज

चांद ढलता रहा हर रोज

रितु का आना-जाना बना रहा

आपस में अनबन ठना रहा

चांद सितारे तन्हा निहारती रही

रोती कभी खुद को सवारती रही

जीवन में पडाव आखिर आना  था

कभी ढलान कभी चढ़ाव आना  था

सफर यूं ही चलता रहा किस्मत

वक्त के आगे हाथ मलता रहा

जो जीता वही तो सिकंदर है

ना जीता मान लो वह मुकद्दर है

क्या इसी का नाम जिंदगी है

शायद सांसों की गिनती ही बंदगी है

चलिए चलती हूं फिर मैं मिलूंगी

कुछ कहूंगी कुछ आपकी सुनूंगी

मैं क्या हूं सिर्फ एक किरदार हूं

मगर बेवफा नहीं वफादार हूं

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