मैंने भी देखा है..!

विजय सिंह, बलिया (उत्तर प्रदेश) 

मैंने भी देखा है, 
किसी डूबते हुए को,
उबरते हुए!
बिखरे हुए को, 
संभलते हुए!

     कभी मुट्ठी भर रेत को, 
     हाँथो से फिसलते हुए! 
     विशाल समुद्र को भी, 
     मरूस्थल बनते हुए! 

रोशनी से अंधेरे को,
दबे पैर निकलते हुए!
विजय! एकांत को भी, 
सम्मेलन बनते हुए!!

     मैंने भी देखा है.. 
     नीले आसमान को, 
     धुएँ में लिपटते हुए!
     दिन के कोलाहल को,
     सन्नाटे में सिमटते हुए!! 

सिरफिरे हवाओं से, 
ज्वाला को धधकते हुए!
एक चिंगारी को भी, 
अंगारों में बदलते हुए!!

     साज़िश के चक्रव्यूह से, 
     अभिमन्यु को लड़ते हुए!
     अर्जुन के बाणों से, 
     जयद्रथ को मरते हुए!! 

जो वीरता का परिचायक है, 
वो राजतिलक के लायक है! 
शंखनाद कर दे सृष्टि में, 
वही महा अधिनायक है!!

     छोड़ चुका हूँ आशाएं, 
     खत्म हो गई बाधाएँ!
     अद्भुत और असीमित है,
     नए दौर की सीमाएँ!! 

नियति जो चाहे वो ही होगा,
यही है कर्मों का लेखा जोखा!
कौन बचा है इस परीक्षा से,
सबको डगर से निकलना होगा!! 

      कुछ तो यादों का विमर्श है, 
      कुछ विचारों का संघर्ष है!
      हर एक मोड़ पर मिलता, 
      मुफ्त का परामर्श है! 

हाँ! मैंने भी देखा है,
एक छोटे पौधे को भी, 
बरगद का वृक्ष बनते हुए!
छोटी सी नाव को, 
दरिया पार करते हुए!!

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