..और जिंदगी में पैर ठहर से गये!
उस दिन सबेरे आठ बजे मैं अपने शहर से दूसरे शहर जाने के लिए निकला। मैं रेलवे स्टेशन पँहुचा, पर देरी से पँहुचने के कारण मेरी ट्रेन निकल चुकी थी। मेरे पास दोपहर की ट्रेन के अलावा कोई चारा नही था। मैंने सोचा कहीं नाश्ता कर लिया जाए । बहुत जोर की भूख लगी थी। मैं होटल की ओर जा रहा था। अचानक रास्ते में मेरी नजर फुटपाथ पर बैठे दो बच्चों पर पड़ी। दोनों लगभग १०-१२ साल के रहे होंगे। बच्चों की हालत बहुत खराब थी। कमजोरी के कारण अस्थि पिंजर साफ दिखाई दे रहे थे। वे भूखे लग रहे थे। छोटा बच्चा बड़े को खाने के बारे में कह रहा था और बड़ा उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था। मैं अचानक रुक गया। दौड़ती भागती जिंदगी में पैर ठहर से गये। जीवन को देख मेरा मन भर आया। सोचा इन्हें कुछ पैसे दे दिए जाएँ। मैं उन्हें दस रु. देकर आगे बढ़ गया तुरंत मेरे मन में एक विचार आया कितना कंजूस हूँ मैं! दस रु. का क्या मिलेगा? चाय तक ढंग से न मिलेगी! स्वयं पर शर्म आयी फिर वापस लौटा। मैंने बच्चों से कहा - कुछ खाओगे? बच्चे थोड़े असमंजस में पड़ गए! जी। मैंने कहा बेटा! मैं नाश्ता करने जा रहा हूँ, तुम भी कर लो! वे दोनों भूख के कारण तै